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इस दुखद परिदृश्य पर अपनी राय देते हुये बनारस के जाने-माने समाजसेवी डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं कि ‘बुनकरों पर लगातार सुनियोजित हमले किए गए और यह सब 1960 के दशक से शुरू हुआ। उस समय मारवाड़ी गद्दीदार और मुस्लिम बुनकर थे और किसी किस्म का क्लेश नहीं था। आप देखेंगे कि 1960 के पहले बनारस में सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ था लेकिन जैसे-जैसे आर्थिक समीकरण बदले वैसे-वैसे चीजें भी बदलने लगीं। खासतौर से तब जब मदनपुरा और अलईपुर के अंसरियों ने इस ट्रेड में जड़ जमाना शुरू किया। उन्होंने गाँव और शहर में अपने हिन्दू और मुस्लिम कारीगरों की एक शृंखला खड़ी की और यह पैराडाइम दरअसल हिन्दू गद्दीदारों के लिए असुविधाजनक सिद्ध होने लगा। उन्होंने जिन राजनीतिक ताकतों को समर्थन देना शुरू किया वे सांप्रदायिकता के गर्भ से ही आई थीं।’
डॉ. लेनिन जिस ओर इशारा करते हैं दरअसल उसे व्यापक अर्थों और संदर्भों में समझने की जरूरत है। देश की अर्थव्यवस्था में बुनियादी योगदान करनेवाले बुनकर आखिर श्रमिक के रूप में न देखे जाकर सांप्रदायिक रूप में क्यों देखे जा रहे हैं? और इस तरह कौन से निहित स्वार्थ हैं जिनकी पूर्ति हो रही है? क्योंकि समप्रायिक आधार पर जैसे-जैसे बात आगे बढ़ती है वैसे-वैसे बुनकरों के हितों को पीछे ढकेलना उनके लिए आसान होता जाता है। डॉ लेनिन आगे कहते हैं कि ‘ यह दुर्भाग्य की बात है कि जहां ट्रेड यूनियन मजबूत होनी चाहिए और बुनकरों के हितों का सवाल राष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाना चाहिए वहाँ सांप्रदायिक स्तर पर उन्हें डायल्यूट कर दिया गया है।
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