Monday, January 27, 2025

Seeking freedom from abuse, two UP women defy norms and marry each other

  Lenin Raghuvanshi, a leading human rights activist, lauded their courage. "This act is not just a rejection of abuse; it's a powerful statement against the systemic oppression women face.

It underscores the urgent need to address domestic violence and ensure women's safety at home," he said.

Link for details news: https://www.dailypioneer.com/2025/india/seeking-freedom-from-abuse--two-up-women-defy-norms-and-marry-each-other.html

Wednesday, January 8, 2025

An Evening of Peace and Art: A Memorable Gathering in Varanasi





 In a world often overshadowed by discord, a heartfelt message from Prof. Chawky Frenn illuminated the spirit of unity and peace. Writing to Lenin Raghuvanshi, Prof. Frenn shared, "You are my brothers, you are my community of peace building. I love you 🙏❤️." This simple yet profound expression of love and camaraderie set the tone for a unique gathering organized through the WhatsApp group "Varanasi Artists for Peace."

A Dinner to Remember

The invitation, aptly titled "Last Supper," beckoned attendees to Roma’s Cafe in Varanasi for a dinner on the eve of January 9, 2025, at 7:30 PM. Prof. Chawky Frenn extended this heartfelt call to his fellow peace-builders and artists, writing, "I hope all of you can make it for our last group gathering."

Among the distinguished attendees were:

  • Prof. Chawky Frenn – A renowned artist and peace advocate.

  • Prof. Pradosh Mishra – A visionary academic and artist.

  • Prof. Suresh K. Nair – An artist whose works speak volumes about humanity.

  • Mr. Parnab Mukherjee – A curator and cultural luminary.

  • Mr. Lenin Raghuvanshi – A tireless human rights defender and founder of PVCHR.

The evening unfolded as a harmonious blend of artistic discussions, shared meals, and reflections on their shared mission of peace-building. It was a poignant reminder of how art and dialogue can bridge divides and inspire collective action.

Invitation to "We the Discarded"

The dinner also set the stage for an eagerly awaited event: the group show "We the Discarded" featuring works by Chawky Frenn, Pradosh Mishra, and Suresh K. Nair. Curated by the eminent Parnab Mukherjee, the exhibition promises to be a profound exploration of themes surrounding social justice, human dignity, and the resilience of the marginalized.

The show will be held at ISHII Art Gallery, Samne Ghat, Varanasi, with its inauguration graced by Prof. Sadanand Shahi on January 10, 2025, at 5:00 PM.

A Call to Join

For those in Varanasi, this is an unmissable opportunity to witness a confluence of art and activism. The exhibition—a collaborative effort of brilliant minds—reflects the enduring spirit of peace-building and creativity.

The Essence of Togetherness

As the dinner concluded, it was clear that this gathering was more than a meal; it was a celebration of shared values and a reaffirmation of their commitment to creating a more compassionate world. The group’s collective efforts, both in art and advocacy, serve as a beacon of hope and inspiration for all.

Mark your calendars and join this extraordinary community at the ISHII Art Gallery to experience "We the Discarded" and carry forward the message of peace and solidarity.

Tuesday, January 7, 2025

निजी अनुभव से सामूहिक मुक्ति तक: बनारस के दलितों पर लियोनार्डो वेर्जारो की एथनोग्राफी

 https://junputh.com/column/leonardo-verzaro-research-an-interplay-between-personal-and-collective-through-humanitarian-action/

निजी अनुभव से सामूहिक मुक्ति तक: बनारस के दलितों पर लियोनार्डो वेर्जारो की एथनोग्राफी


किसी भी व्यक्ति का जीवन केवल व्यक्तिगत अनुभवों का संग्रह नहीं होता, बल्कि उसके समय के विचारों, मूल्यों और सामाजिक परिस्थितियों का गहन चित्रण भी होता है। इतिहास गवाह है कि मनुष्‍य के अनुभव यानी उसके जीवन-संघर्ष, दर्द और पीड़ा के जो व्‍यक्तिगत अफसाने होते हैं वे ही सबसे पहले सामूहिक बदलाव की यात्रा पर उसे ले जाने का बायस बनते हैं। निजी और सामूहिक की इस अंतरक्रिया में मानवीय कार्रवाइयां पुल का काम करती हैं। 

इटली के मानवविज्ञानी लियोनार्डो वेर्जारो का ताजा शोध प्रबंध निजी जीवन अनुभवों और सामाजिक परिवर्तन के बीच एक नक्‍शानवीसी है, जिसके एक सिरे पर मेरा जीवन है तो दूसरे सिरे पर बनारस के दलितों का सामूहिक जीवन। इस शोध पर उन्होंने हाल ही में मिलान विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है।

इटली के वोघेरा में जन्‍मे लियोनार्डो की थीसिस का विषय है ‘’कंस्‍ट्रक्‍शन एंड ट्रांसफॉर्मेशन्‍स ऑफ द सेल्‍फ इन वाराणसी: एथनोग्राफी ऑफ ए ह्यूमनिटेरियन एक्‍सपीरिएंस’’। इस शोध के लिए लियोनार्डो 2023 में अक्‍टूबर से दिसंबर के बीच बनारस में रहे और उन्‍होंने बहुत सघन फील्‍डवर्क किया।


अपने शोध प्रबंध के साथ लियोनार्डो

लियोनार्डो के किए एथनोग्राफिक अध्‍ययन की जड़ें बनारस के दलित समुदायों के दैनंदिन अनुभवों में निहित हैं। पुलिस बर्बरता, उत्‍पीड़न, सामाजिक बहिष्‍करण पर दलितों की गवाहियों और संवादों के सहारे वे एक ऐसा आख्‍यान रचते हैं कि ये गवाहियां खुद-ब-खुद एक रूपांतरकारी प्रक्रिया में तब्‍दील हो जाती हैं। यह प्रक्रिया अपनी जीवन-कथा सुनाने वाले को एक ओर सशक्‍त करती है, तो दूसरी ओर उसके दुख-दर्द को निजी व सामूहिक बदलाव के उत्‍प्रेरक में ढाल देती है।  

संयोग से लियोनार्डो के अध्‍ययन में मानवाधिकार जन निगरानी समिति हमराह रही है, जिसने अपने लोक विद्यालय (फोक स्‍कूल), टेस्टीमोनियल थेरपी, स्टोरीटेलिंग के माध्‍यम से बरसों यही काम किया है। इसलिए लियोनार्डो के शोध और पीवीसीएचआर के तजुर्बे का एक स्‍वाभाविक रिश्‍ता बनता था।

दूसरा संयोग यह था कि लियोनार्डो की कहानी के केंद्र में मैं खुद एक केंद्रीय किरदार की तरह हूं। लियोनार्डो का शोध मेरे निजी और सार्वजनिक जीवन के बीच रिश्‍ते को समझने का एक प्रामाणिक दस्‍तावेज बन चुका है। वे मेरी जीवन-कथा के बहाने ‘’रेजिस्‍टेंट वाइटलिटी’’ की अवधारणा को रखते हैं। इसका अर्थ है प्रतिरोधी प्राणशक्ति, यानी वह प्रतिरोध जो निजी दुख को सार्वजनिक मानवीय कार्रवाई में तब्‍दील कर दे।

मेरे जीवन के निजी प्रसंगों को लियोनार्डो ने एक लेन्‍स की तरह इस्‍तेमाल कर के यह जानने की कोशिश की है कि कैसे व्‍यक्ति अपनी प्रतिकूलताओं के पार जाकर बदलाव का वाहक बन सकता है। उनके शोध में शामिल कुछ प्रसंग इस लिहाज से चर्चा के योग्‍य हैं।    

लियोनार्डो के शोध प्रबंध में मेरे जीवन की कहानी के कुछ ज्ञात और अज्ञात पहलू हैं। उन्‍हीं पहलुओं से मिलकर मेरा जीवन बना।

जैसे, मेरे दादा श्री शांति कुमार सिंह गांधीवादी विचारधारा के सच्चे अनुयायी थे। उन्होंने 1941 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा। उनका जीवन सत्य, अहिंसा और समाज सेवा के मूल्यों का प्रतीक था। दूसरी ओर मेरे पिता श्री सुरेंद्र नाथ सिंह साम्यवाद से प्रेरित थे। उन्होंने स्टालिन और माओ की विचारधाराओं को अपनाया और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की दिशा में प्रयासरत रहे।

बचपन में मैंने दादा से प्रेम, करुणा और अहिंसा सीखी, जबकि पिता से कठोरता, अनुशासन और समाज की संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा मिली। इन दो विचारधाराओं के बीच का द्वंद्व मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा कैसे बना, लियोनार्डो की एथनोग्राफी इसे तफ़सील से बताती है।



इस रूपांतरकारी जीवन-कथा में पिता और दादा के साथ कई और किरदार हैं, जैसे मेरी मां, दादी और चाचा। दादी यशोदा देवी की यह शिक्षा, कि “स्थानीय ही सार्वभौमिक है,” मेरे जीवन का आधार बनी। मेरे पेशेवर और सामाजिक कार्यों के केंद्र में बनारस का होना संयोग नहीं, दादी की शिक्षा से आया है।

मेरी मां ने 2002 में एक वसीयत तैयार की। उसमें मेरा और मेरी पत्नी का नाम शामिल नहीं था। यह निर्णय परिवार में मतभेदों को गहराई तक ले गया। अंततः मां ने वसीयत में संशोधन कर मेरे पुत्र को शामिल किया। इस संघर्ष ने मुझे यह सिखाया कि परिवार और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी निभाने में गरिमा और धैर्य को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। संस्‍था चलाने में यह शिक्षा अब भी काम आ रही है, जहां का एक-एक सदस्‍य परिवार के अंग जैसा है।  

मेरे जीवन का सबसे पहला संघर्ष तब सामने आया जब 1985 में हाई स्कूल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, मुझे मेरे पिता के घर से निकाल दिया गया। यह केवल आर्थिक कठिनाई का परिणाम नहीं था, बल्कि वैचारिक मतभेदों का भी प्रतिबिंब था। यह घटना मेरे जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने मुझे स्वावलंबन की ओर प्रेरित किया।

आयुर्वेदाचार्य के दौरान, मुझे साइकिल से वाराणसी से भदोही आना-जाना पड़ता था। यह यात्रा कठिन थी। फिर इंटर्नशिप के दौरान मैंने सरकारी अस्पताल में काम किया जहां आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद मैंने अपनी शिक्षा पूरी की। इस अवधि ने मुझे यह सिखाया कि संघर्ष के समय भी अपने आदर्शों और लक्ष्यों से समझौता नहीं करना चाहिए।

युद्ध कभी समाधान नहीं होता, फिर भी युद्ध युद्ध ही है। जो इसे छूता है, उस पर अमिट निशान छोड़ जाता है। युद्ध शहीदों के परिवारों के लिए अपार पीड़ा लेकर आता है, जिनके बलिदान से वे स्वतंत्रताएं सुरक्षित होती हैं, जिन्हें हम अक्सर हल्के में ले लेते हैं।

हाल ही में श्रुति और मैंने अपने चाचा श्री राम औतार सिंह को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अपनी जान न्योछावर करने वाले सच्चे नायक थे। उनके सर्वोच्च बलिदान को याद करना अत्यंत भावुक कर देने वाला अनुभव है, विशेष रूप से यह जानकर कि मेरा जन्म 1970 में हुआ था, यानी उनकी शहादत से मात्र एक वर्ष पहले। सेना संख्या 13916154 के धारक चाचा राम औतार सिंह ने ग्राम धौरहरा, वाराणसी से आते हुए सेना में SEP/SKT राम औतार सिंह के रूप में सम्मानपूर्वक सेवा की। उन्होंने 18 फरवरी 1969 को सेना में प्रवेश किया और 1971 के युद्ध में भाग लेते हुए अदम्य साहस और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य को निभाया।



4 जनवरी 1972 को 92 बेस अस्पताल में गंभीर गोला-बारूद के घावों के कारण उनका निधन हो गया। फिर भी, उनकी अडिग भावना ने देशभक्ति की एक अमिट विरासत छोड़ी। उनकी कहानी युद्ध की व्यक्तिगत लागत का मार्मिक स्मरण है, जो हमें शांति के लिए प्रयास करने और उन वीरों को सम्मानित करने के लिए प्रेरित करती है जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।

इसी तरह मेरे दादा के छोटे भाई कैप्टन भानु प्रताप सिंह ने 1962, 1965 और 1971 के युद्धों में देश की सेवा की। उनका जीवन अनुशासन, देशभक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है। उनके आदर्श मेरे जीवन में प्रेरणा का स्रोत रहे हैं।

खासकर, मेरे पिता और दादा के बीच के वैचारिक मतभेद ने मेरे दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया।

  • पिता की कठोरता: उन्होंने मुझे समाज की संरचना को समझने और चुनौती देने की प्रेरणा दी।
  • दादा की करुणा: उन्होंने यह दिखाया कि सच्चा परिवर्तन संवाद और सहानुभूति से आता है।

इन दोनों के बीच संघर्ष ने मुझे यह समझने में मदद की कि विचारधारा का संघर्ष हमें विचारशील और न्यायप्रिय बनाता है। गांधीवादी सिद्धांतों और साम्यवाद की संरचनात्मक चुनौतियों के बीच मेरी यात्रा यह सिखाती है कि युद्ध और संघर्ष हमें कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत बनाते हैं।

विचारधारा का अनुसरण केवल एक पक्ष है। सही और गलत के बीच का अंतर करना और इसे अपने दृष्टिकोण में शामिल करना ही वास्तविक बदलाव का आधार है। इसलिए मेरे जीवन की यात्रा, संघर्ष और सीख केवल मेरे अनुभवों का विवरण नहीं है। यह समाज में परिवर्तन लाने की प्रतिबद्धता का स्रोत है।


PVCHR के दफ्तर में अपनी गवाहियों के बाद उत्पीड़ित दलित और डॉक्टर लेनिन

लियोनार्डो वेर्जारो द्वारा किया गया शोध इसी का प्रमाण है कि व्यक्तिगत संघर्ष और सामाजिक प्रतिबद्धता का संगम वैश्विक प्रेरणा का स्रोत कैसे बन सकता है। वे मेरे निजी जीवन के साथ दलितों की जीवन कथाओं को बहुत महीन ढंग से बुनकर एक ऐसा आख्यान रचते हैं जहां एक-दूसरे के अनुभव साझा करना करुणा को जन्‍म देता है और मानवीय कार्रवाइयों में एकजुटता को उभारता है।

निजी दुख-दर्द और सामूहिक कार्य को एक सेतु की तरह जोड़ने का जो काम लियोनार्डो ने अपने शोध में किया है, वह अस्मिताओं को गढ़ने और बदलाव के लिए एकजुटताएं कायम करने में स्‍टोरीटेलिंग की जबरदस्‍त भूमिका को रेखांकित करता है।

लियोनार्डो का वाराणसी के दलितों पर काम एक चमकदार उदाहरण है कि मानवविज्ञान की जड़ें यदि निजी करुणा और सामूहिक कार्रवाई में हों तो वह कहीं ज्‍यादा न्‍यायपूर्ण और करुणामय जगत की राह रोशन कर सकता है। लियोनार्डो का बनारस में किया फील्डवर्क पूरी दुनिया के लिए निजी और सार्वजनिक के बीच संबंध को समझने का एक दस्‍तावेज है।



Sunday, January 5, 2025

जब पूरी दुनिया तरक्की के परवाज़ को छू रही थी: सावित्रीबाई फुले और नारी शिक्षा का स्वप्न

  भारत के इतिहास में सावित्रीबाई फुले का नाम नारी शिक्षा और सामाजिक न्याय के प्रतीक के रूप में लिखा गया है। जब हमारे देश में महिला शिक्षा पर सामाजिक पाबंदियां थीं और महिलाओं के लिए पढ़ाई-लिखाई एक असंभव सपना था, उस समय सावित्रीबाई फुले ने न केवल शिक्षा प्राप्त की, बल्कि अन्य लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।

सावित्रीबाई फुले को समाज की विषमताओं का सामना करना पड़ा। जब वे स्कूल जाती थीं, तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे और उनके विद्यालय जाने का विरोध करते थे। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाया। आज पूरा देश उन्हें एक महानायिका और सामाजिक सुधारक के रूप में देखता है।

लेकिन सवाल यह है: क्या सावित्रीबाई फुले का नारी शिक्षा का सपना आज पूरा हो पाया है? क्या आज भी महिलाएं और लड़कियां उन सामाजिक बंधनों से मुक्त हो पाई हैं, जिनसे सावित्रीबाई ने लड़ाई लड़ी थी?

बहुजन संवाद पर विशेष चर्चा

इन्हीं सवालों पर एक महत्वपूर्ण चर्चा आयोजित की गई है। बहुजन संवाद यूट्यूब चैनल और फेसबुक पेज पर आज शाम 6 बजे आप इन मुद्दों पर चर्चा में शामिल हो सकते हैं।

इस चर्चा में अपने विचार साझा करेंगे:

  • श्रुति नागवंशी, संस्थापक, मानवाधिकार जन निगरानी समिति
  • सरिता भारत, राष्ट्रीय संयोजक, राष्ट्रीय महिला हिंसा मुक्ति वाहिनी, अलवर
  • भावना मंगलमुखी, लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता, मुंबई
  • कॉ. चित्रा वंजारी, राष्ट्रीय काउंसिल मेंबर, भारतीय महिला फेडरेशन, अमरावती
  • नीतू भारद्वाज, संयोजक, राष्ट्रीय महिला हिंसा मुक्ति मंच, दिल्ली
  • अनुपमा तिवारी, कवयित्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता, जयपुर

🎤 संचालन: एड. आराधना भार्गव

सावित्रीबाई फुले की प्रेरणा और उनके द्वारा शुरू किए गए सामाजिक आंदोलन की गूंज आज भी सुनाई देती है। इस चर्चा का हिस्सा बनें और उनके सपनों को साकार करने की दिशा में अपनी भूमिका पर विचार करें।

Thursday, January 2, 2025

काशी के लेनिन सुना रहे हैं अपने पुरखों के बलिदानी इतिहास की दास्तान

 https://hamaramorcha.com/a-legacy-of-valour-and-vision-remembering-captain-bhanu-pratap-singh-and-his-freedom-fighters/

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बकलमः लेनिन रघुवंशी
1 जनवरी 2025 को, हमने अपने प्रिय ग्रैंडअंकल कैप्टन भानु प्रताप सिंह की तेरहवीं रस्म के अवसर पर एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। उनका निधन 20 दिसंबर 2024 को हुआ था। 15 अक्टूबर 1937 को जन्मे कैप्टन भानु प्रताप सिंह अनुशासन, देशभक्ति और सेवा के प्रतीक थे। उनका जीवन हमें न केवल उनके योगदान का सम्मान करने के लिए प्रेरित करता है, बल्कि हमारे परिवार और गाँव की भारत की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका की स्थायी विरासत पर भी विचार करने का अवसर प्रदान करता है।

कैप्टन भानु प्रताप सिंह: एक सैनिक की यात्रा
कैप्टन भानु प्रताप सिंह ने भारतीय सेना में एक सैनिक के रूप में अपना करियर शुरू किया और कप्तान के पद तक पहुंचे। उन्होंने देश की कुछ सबसे महत्वपूर्ण संघर्षों के दौरान राष्ट्र की सेवा की:

  • 1962 का भारत-चीन युद्ध, जिसमें उन्होंने असाधारण साहस का प्रदर्शन किया।
  • 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, जिनमें उन्होंने अदम्य शौर्य और समर्पण के साथ देश की रक्षा में योगदान दिया।

कई दशकों की सेवा के बाद, उन्होंने 1987 में सेवानिवृत्ति ली, लेकिन अपने पीछे नेतृत्व और समर्पण की विरासत छोड़ गए। उनका जीवन कड़ी मेहनत और देशभक्ति के मूल्यों का प्रतीक था, जो आज भी हमारे परिवार को प्रेरित करता है।


           
श्रद्धांजलि की यात्रा
अपनी पत्नी श्रुति नागवंशी,  मेरे भाई राहुल की पत्नी सविता सिंह और हमारे पारिवारिक मित्र दीपक पांडे के साथ, हमने उनकी स्मृति को सम्मानित करने के लिए एक यात्रा शुरू की।

हमारा पहला पड़ाव छिटौनी के नेपाली माता मंदिर में था, जिसके बाद हमने अपने पैतृक गाँव धौराहरा का दौरा किया। यह तीर्थयात्रा व्यक्तिगत और सामूहिक श्रद्धांजलि थी, जहाँ हमने उन स्थानों को पुनः देखा जो हमारे परिवार के बलिदानों और सेवा की भावना को सजीव करते हैं।
नेपाली माता मंदिर के दर्शन करने के बाद हम अपने गांव धौरहरा की ओर बढ़े, जहां हमने मेरे दादा श्री शांति कुमार सिंह को समर्पित एक द्वार देखा, जो गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनके अमूल्य योगदान की याद में बनाया गया था। इसके बाद हमने अपने गांव में काली मंदिर और उसके बाद धौरहरा के कुटी में राम जानकी मंदिर का दौरा किया।

युद्ध कभी समाधान नहीं होता, फिर भी युद्ध युद्ध ही है, जो इसे छूता है, उस पर अमिट निशान छोड़ जाता है।
युद्ध शहीदों के परिवारों के लिए अपार पीड़ा लेकर आता है, जिनके बलिदान से वे स्वतंत्रताएँ सुरक्षित होती हैं जिन्हें हम अक्सर हल्के में ले लेते हैं। हाल ही में, श्रुति और मैंने अपने चाचा, श्री राम औतार सिंह को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अपनी जान न्योछावर करने वाले सच्चे नायक थे।

उनके सर्वोच्च बलिदान को याद करना अत्यंत भावुक कर देने वाला अनुभव है, विशेष रूप से यह जानकर कि मेरा जन्म 1970 में हुआ था, यानी उनकी शहादत से मात्र एक वर्ष पहले। सेना संख्या 13916154 के धारक, चाचा राम औतार सिंह ने ग्राम धौरहरा, वाराणसी से आते हुए सेना में SEP/SKT राम औतार सिंह के रूप में सम्मानपूर्वक सेवा की। उन्होंने 18 फरवरी 1969 को सेना में प्रवेश किया और 1971 के युद्ध में भाग लेते हुए अदम्य साहस और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य को निभाया।

4 जनवरी 1972 को 92 बेस अस्पताल में गंभीर गोला-बारूद के घावों के कारण उनका निधन हो गया। फिर भी, उनकी अडिग भावना ने देशभक्ति की एक अमिट विरासत छोड़ी। उनकी कहानी युद्ध की व्यक्तिगत लागत का मार्मिक स्मरण है, जो हमें शांति के लिए प्रयास करने और उन वीरों को सम्मानित करने के लिए प्रेरित करती है जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।

हमारे गाँव की गौरवपूर्ण और दुखद गाथा
हमारा गाँव स्वतंत्रता संग्राम के पहले संगठित राष्ट्रव्यापी संघर्ष, 1857 की क्रांति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का गौरव रखता है। इस दौरान, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता द्वारा कई ग्रामीणों को फांसी दी गई, जिनमें मेरे परिवार के तीन सदस्य भी शामिल थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।

हमारे गांव के नायकों में श्री मार्कंडेय सिंह, अधिवक्ता और स्वतंत्रता सेनानी हैं, जो मेरे दादा के चाचा थे। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी अटूट प्रतिबद्धता के लिए बनारस में सबसे लंबे समय तक कारावास सहा। 17 सितंबर, 1990 को उनके निधन ने हमारे जीवन में एक अपूरणीय शून्य छोड़ दिया, लेकिन साहस और बलिदान की उनकी विरासत न्याय और सम्मान के लिए मेरे काम में मुझे प्रेरित और मार्गदर्शन करती रहती है। श्री मार्कंडेय सिंह एक सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिए बनारस में सबसे लंबे समय तक कारावास के दौरान उनके उल्लेखनीय धीरज के लिए जाना जाता था। जब 17 सितंबर, 1990 को उनका निधन हुआ, तो इसने हमारे जीवन में एक गहरा खालीपन पैदा कर दिया। ठीक चार साल बाद, मैंने समाज के सबसे हाशिए पर पड़े लोगों के लिए स्वतंत्रता और सम्मान की खोज से प्रेरित होकर एक पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी यात्रा शुरू की। उनके स्थायी मूल्य, साहस, बलिदान और दृढ़ संकल्प मेरे लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे। वे दृढ़ निश्चय और अदम्य साहस के प्रतीक थे, फिर भी यह लंबे समय तक कारावास की कठोरता ही थी जिसने अंततः उनके संघर्षों को समाप्त कर दिया। फिर भी, हम उनकी अद्वितीय सेवा के लिए उनका सम्मान करते हैं, जो उन्होंने बिना किसी मान्यता या प्रसिद्धि की चाह के, निस्वार्थ भाव से की। हालाँकि प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनके कई व्यक्तिगत सपनों को चकनाचूर कर दिया हो, लेकिन उनकी विरासत अछूती है, जो हमेशा के लिए हमारे दिलों में अंकित है।

उनका जाना न केवल हमारे परिवार के लिए बल्कि उन सभी के लिए एक व्यक्तिगत क्षति थी जो उन्हें शक्ति और प्रेरणा के स्तंभ के रूप में देखते थे। उनकी प्यारी पत्नी, जो अपने आप में एक उल्लेखनीय स्वतंत्रता सेनानी थीं, भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में बहुत योगदान देते हुए उनके साथ दृढ़ता से खड़ी रहीं। साथ में, उन्होंने राष्ट्र के प्रति समर्पण, निस्वार्थता और गहन सेवा की विरासत छोड़ी।

एक जटिल रिश्ता: मेरे पिता और दादा
मेरे दादा, श्री शांति कुमार सिंह, एक कट्टर गांधीवादी थे, जो जमीनी स्तर की राजनीति और राष्ट्रीय परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय समुदायों की शक्ति में विश्वास करते थे। उनका दर्शन, “स्थानीय सार्वभौमिक है,” मेरे साथ गहराई से जुड़ता है। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के लिए धन की मांग हेतु ब्रिटिश सरकार की मांग का विरोध करने के लिए 1941 में अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया, तथा अपने विश्वासों के कारण कारावास और शारीरिक दंड भी भोगा।

शुरुआती जीवन
मेरा बचपन नौ महीने की उम्र से सात साल तक मेरे दादा-दादी के साथ मुंबई और फिर हमारे गाँव में बीता। इसके बाद, मैं अपने माता-पिता के घर दौलतपुर, वाराणसी चला गया। वहाँ मैंने अपने पिता और दादा के बीच विचारधाराओं के तीव्र टकराव को अनुभव किया। मेरे पिता, श्री सुरेंद्र नाथ सिंह, एक प्रतिबद्ध साम्यवादी थे, जो स्टालिन और माओ के समर्थक थे और हिंसक आंदोलनों का समर्थन करते थे। दूसरी ओर, मेरे दादा, श्री भानु प्रताप सिंह, गांधीवादी सिद्धांतों के अनुयायी थे। मैं अपने दादा-दादी के मूल्यों से गहराई से प्रभावित था, जिन्होंने मुझे अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता, और जातिविहीन समाज के आदर्श सिखाए।

शिक्षा और संघर्ष
1985 में, हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी और गणित व जीव विज्ञान में विशिष्टता के साथ उत्तीर्ण करने के बाद, मुझे अपने पिता के घर से निकाल दिया गया। इसके बाद मैंने गाँव से क्वींस कॉलेज, वाराणसी में इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। फिर छह महीने यूपी डिग्री कॉलेज में बी.एससी. और एक सेमेस्टर बी.एससी. (कृषि) में बीएचयू से पढ़ाई की। अंततः मैंने गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के राज्य आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज से आयुर्वेद, आधुनिक चिकित्सा, और शल्य चिकित्सा (BAMS) में स्नातक डिग्री और संस्कृत में शास्त्री की पढ़ाई पूरी की।

परिवार की विरासत
मेरे दादा, श्री भानु प्रताप सिंह, अनुशासन, साहस, और देशभक्ति के प्रतीक थे। उन्होंने मुझे कड़ी मेहनत और न्याय के लिए खड़े होने के मूल्य सिखाए। उनके साथ बिताए गए वर्षों ने मेरे चरित्र को आकार दिया। उनकी कहानियाँ, जिनमें राष्ट्र के संघर्षों में उनकी भागीदारी का उल्लेख होता था, मेरे लिए गर्व का स्रोत हैं। मैं उनकी अनुपस्थिति को गहराई से महसूस करता हूँ।

दूसरी ओर, मेरे पिता का साम्यवादी दृष्टिकोण उनके गांधीवादी पिता से अलग था। दोनों का समाज परिवर्तन के प्रति समर्पण अडिग था, लेकिन उनकी विधियाँ और विश्वास भिन्न थे।

विचारधाराओं का प्रभाव
इन विरोधाभासी विचारधाराओं ने मेरे लिए चुनौती और विकास दोनों के अवसर प्रस्तुत किए। मेरे पिता के विचारों ने मुझे समाज की संरचनाओं को समझने में मदद की, लेकिन मेरे दादा के शांति और सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण ने अंततः मेरे जीवन के कार्य का मार्गदर्शन किया।

यह यात्रा मुझे सिखाती है कि अलग-अलग दृष्टिकोणों के बीच संतुलन बनाना और सही मूल्य अपनाना ही सच्चा विकास है।

दादी से मिले जीवन के पाठ
मेरी दादी, यशोदा देवी, एक अद्वितीय महिला थीं, जो गरिमा और आध्यात्मिकता की प्रतीक थीं। 105 वर्ष की आयु में भी वह सक्रिय और आत्मनिर्भर रहीं, अपनी बुद्धिमत्ता और सौम्यता से हमारे परिवार को निरंतर प्रेरित करती रहीं। वह मेरे लिए केवल एक मार्गदर्शक नहीं, बल्कि सहनशीलता और करुणा का प्रतीक भी थीं।

उनका प्रभाव, मेरे दादा के मूल्यों के साथ मिलकर, मुझे जमीनी कार्यों की महत्ता, ईमानदारी और समुदाय की शक्ति का महत्व सिखाता है।


विरासत को आगे बढ़ाना
कैप्टन भानु प्रताप सिंह का जीवन हमें यह याद दिलाता है कि हमारे सैनिकों ने देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए कितने बलिदान दिए। उनका अनुशासन और देशभक्ति हमारे परिवार की विरासत का हिस्सा हैं, जो स्वतंत्रता सेनानियों जैसे श्री राम औतार सिंह के संघर्षों के साथ जुड़े हुए हैं। श्री राम औतार सिंह ने 1971 के पाकिस्तान युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी। हमारे गाँव के अनेकों अन्य लोगों ने भी स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर किए।

मानवाधिकार संस्था और PVCHR के सह-संस्थापक के रूप में, मैं इन मूल्यों को आगे ले जाने का प्रयास करता हूँ। मेरी जीवन संगिनी, श्रुति नागवंशी, और मैं न्याय, समानता और गरिमा के आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। यह सब हमारे पूर्वजों द्वारा रखी गई नींव पर आधारित है।

यह विरासत हमें न केवल प्रेरणा देती है, बल्कि एक जिम्मेदारी भी देती है कि हम उन मूल्यों को जीवित रखें और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाएँ।

निजी चिंतन और समझ

कैप्टन भानु प्रताप सिंह की तेरहवीं समारोह केवल एक रस्म नहीं थी; यह हमारे परिवार को जोड़ने वाली सेवा और बलिदान की साझा विरासत पर विचार करने का एक क्षण था। उनका जीवन, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन के साथ, हमें एक न्यायपूर्ण और समान समाज के लिए संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित करता है।

विरासत की मशाल को थामना: बलिदान का सम्मान और न्याय की रक्षा

कैप्टन भानु प्रताप सिंह और धौराहरा के नायकों के पदचिन्हों में, हमें केवल एक विरासत नहीं मिलती, बल्कि उन मूल्यों को बनाए रखने की एक गहरी जिम्मेदारी मिलती है जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया। उनके बलिदान साहस, दृढ़ता, और न्याय और समानता के आदर्शों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं। जब हम उनकी स्मृति का सम्मान करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि उनकी विरासत का सच्चा सार केवल अतीत को स्मरण करने में नहीं है, बल्कि हमारे निरंतर प्रयासों में है जो एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए है जो करुणा, निष्पक्षता, और मानवता पर आधारित हो। उनके बलिदान वह नींव हैं जिस पर हमें खड़ा होना चाहिए ताकि एक ऐसा भविष्य बनाया जा सके जहां गरिमा, शांति, और न्याय प्रबल हों। उनकी आत्मा हमें मार्गदर्शन करे, प्रेरित करे, और आने वाली पीढ़ियों द्वारा कभी न भुलाई जाए।